नक्सलवाद से आतंकवाद की तरह निपटना होगा

punjabkesari.in Friday, Apr 28, 2023 - 05:20 AM (IST)

26 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में आई.ई.डी. विस्फोट से हुए हमले में अद्र्धसैनिक बल के 11 जवान नक्सली बर्बरता का शिकार हुए हैं। इसमें खुफिया तंत्र की असफलता के प्रश्न भी उठे हैं। वैसे नक्सली सफाया अपने अंतिम पायदान पर पहुंच गया है, लेकिन इनको जड़ से उखाडऩे के लिए सेना की सहायता लेने में कोई हर्ज नहीं क्योंकि नक्सली ङ्क्षहसा अब कोई सामाजिक-आर्थिक प्रश्न नहीं रहा। आज का नक्सलवाद एक खतरनाक आपराधिक डकैती और देश विरोधी आतंकवाद बन गया है। इसके लिए वही रणनीति अपनानी होगी जो कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत में उग्रवादियों को समाप्त करने के लिए अपनाई गई है। 

इसे लोकतंत्र में हस्तक्षेप न मानते हुए, विशेष परिस्थितियों के लिए उठाए गए कदम की तरह व नक्सली हिंसा से प्रभावित नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और वहां के विकास के लिए एक आवश्यक नीति के रूप में देखा जाना चाहिए। 

नक्सलवाद को बातचीत या विकास के मुद्दों से बिल्कुल अलग करके देखना होगा। नक्सली अब अपने बिल में बिलबिला रहे हैं। इसकी दो प्रमुख वजहें हैं। पहली बार इन नक्सलियों के अधिकांश शहरी आका- बुद्धिजीवी, पत्रकार और लेखकों की आड़ में छिपे शहरी नक्सलियों को जेल में डाल दिया गया है, जिससे जंगलों में छिपे नक्सलियों को बौद्धिक रसद नहीं मिल रही। दूसरी वजह है सरकार द्वारा नक्सल प्रभावित जिलों में किया जा रहा विकास कार्य, जिससे उनके प्रति स्थानीय जनता की सहानुभूति खत्म होती जा रही है। 

जनता मुख्यधारा से जुड़ कर अपने बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाना चाहती है, न कि इन नक्सलियों की गैंग का गुर्गा। नक्सल प्रभावित भागों में विकास प्रक्रिया में ये बड़े बाधक बन रहे हैं। इसलिए नक्सलियों की सफाई के लिए समग्र रणनीति की जरूरत है। नक्सलवादी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने आंदोलन के पथ भ्रष्ट होने और अपने मुद्दों से भटकने के कारण निराश होकर 23 मार्च,  2010 को आत्महत्या कर ली थी। 

लोकतंत्र और संविधान को चुनौती : नक्सली संगठन माओवाद के ङ्क्षहसा के सिद्धांत को मानने का दावा करते हैं। हालांकि वास्तव में वे एक संगठित अपराधी गिरोह की तरह लूटमार, ङ्क्षहसा और वसूली में  ही लिप्त हैं। वे भारतीय संविधान, संसदीय व्यवस्था और चुनावी राजनीति के विरुद्ध हैं। ये मुट्ठीभर आतंकी इतने महान और ताकतवर देश को नष्ट करने का ख्वाब पाले बैठे हैं। भारतीय संविधान हर नागरिक को चुनाव के माध्यम से सत्ता हासिल करने और अपनी नीतियां लागू करने का अधिकार देता है लेकिन यदि कोई इसे खुली चुनौती देता है तो उसके खिलाफ  देशद्रोह का मामला बनता है।

विकास ने तोड़ी नक्सलवाद की कमर : शहरी नक्सली और उनके समर्थक बुद्धिजीवी नक्सलवाद को सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन और ग्रामीण क्षेत्रों में शोषण से जोड़ कर प्रस्तुत करते रहे हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदी सरकार की विकास योजनाओं और सुरक्षा रणनीति ने इन्हें तोड़ कर रख दिया है। 2021 तक ग्रामीण भारत में लगभग 100 प्रतिशत बिजली पहुंच चुकी है। सड़कों और हाईवे का जाल आर्थिक विकास सुनिश्चित कर रहा है। 

जन-धन योजनाएं किसान सम्मान निधि, आबादी और खेत की जमीनों के ऑनलाइन डाटा होने से गांव में झगड़े खत्म हो रहे हैं। 5 लाख तक का स्वास्थ्य खर्च सरकार दे रही है। किसानों को बीमा, खाते में पैसा और भी सैंकड़ों कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से भारत में गरीबी तेजी से कम हुई है। सामंतवादी व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। हर जाति को आरक्षण और संरक्षण मिल रहा है। शांतिपूर्ण तरीके से लोग सरकारों का खुला विरोध भी करने को आजाद हैं। शिक्षा सभी तक पहुंच रही है तो ऐसे में ङ्क्षहसक विरोध देश विरोधी गतिविधियों और राजनीतिक ङ्क्षहसा के लिए कोई जगह नहीं है। 

समस्या हर समाज में होती है, उसका हल भी उसी को ढूंढना पड़ता है। इनकी आड़ में नक्सली देश विरोधी आतंकी संगठनों और ताकतों से मिलकर ङ्क्षहसा फैला रहे हैं। चंद्रपुर महाराष्ट्र के नक्सल आंदोलन पर शोध करने वाले एक प्रोफैसर कहते हैं कि नक्सली इलाकों में सरकार सड़कें, पुल, स्कूल या अस्पताल बनाने जाती है तो नक्सली इसका विरोध करते हैं। ठेकेदारों से उगाही करते हैं। स्थानीय लोगों को सरकार से सहयोग नहीं करने देते। 

बच्चों को स्कूल में पढऩे से मना करते हैं। यहां तक कि सरकारी कर्मचारियों से भी वसूली करते हैं। अत: इनकी मंशा शोषण और गरीबी की लड़ाई नहीं है, बल्कि देश में राजनीतिक अस्थिरता लाकर आॢथक लूटमार करना है। नक्सली बाहरी ताकतों से हथियार और पैसे लेकर भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ रहे हैं । अत: संचालन का कार्य सेना के हाथ में दे देना चाहिए, जो अद्र्धसैनिक बलों और स्थानीय पुलिस की सांझा टीमें बना कर नक्सलियों को घेरकर समाप्त करे। तभी इसे नक्सल ङ्क्षहसा के विरुद्ध अंतिम लड़ाई कहना उचित होगा।-डा. रवि रमेश चन्द्र    


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